पलक पाँवड़े - अयोध्या सिंह उपाध्याय | Palak Paanvare - Ayodhya Singh Upadhyaya

आज क्‍यों भोर है बहुत भाता ।
क्‍यों खिली आसमान की लाली ॥
किसलिए है निकल रहा सूरज ।
साथ रोली भरी लिए थाली ॥।

इस तरह क्‍यों चहक उठीं चिड़ियाँ ।
सुन जिसे है बड़ी उमंग होती ॥
ओस आकर तमाम पत्तों पर ।
क्यों  गईं है  बखेर यों  मोती।

पेड क्‍यों हैं हरे - भरे इतने । 
किसलिए फूल हैं बहुत फूले ॥
इस तरह किसलिए खिलीं कलियाँ ।
भौंर हैं किस उमंग में भूले ॥

क्यों हवा है सम्भल- संभल चलती ।
किसलिए है जहाँ-तहाँ थमती ॥
सब जगह एक-एक कोने में ।
क्यों महक है पसारती फिरती ॥

लाल नीले सफेद पत्तों में ।
भर गए फूल बेलि बहली क्‍यों ॥
झील तालाब और नदियों में ।
बिछ गईं चादरें सुनहली क्‍यों ॥

किसलिए ठाट बाट हे ऐसा ।
जी जिसे देखकर नहीं भरता ॥
किसलिए एक-एक थल सजकर ।
स्वर्ग की है बराबरी करता ।।

किसलिए है चहल-पहल ऐसी ।
बस किसलिए धूमधाम दिखलाई ॥
कौन-सी चाह आज दिन किसकी ।
आरती है उतारने आईं ।।

देखते राह थक गईं आँखों ।
क्या हुआ क्‍यों तुम्हें न पाते हैं ॥
आ अगर आज आ रहा है तू।
हम पलक पाँवड़े बिछाते हैं ॥

कवि का नाम -
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

Palak pavare kavita - ayodhya singh Upadhyay
अयोध्या सिंह उपाध्याय



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