लौट चलें फिर से हम
माँ प्रकृति की ओर ।
पेड़ों की पंचायत जहाँ
नाँच रहे हों मोर ।।
नदी-पहाड़ जंगल की शोभा
झरनों का हो शोर ।
जहाँ साँझ मंदिर की झालर
गाय रम्भाएं भोर ।।
दूर-दूर खेतों की पंगत
छिटके-छिटके गाँव ।
रोज प्रथम मिलन पर
सब कहते राम राम ।।
शुद्धता की पर्याय मृदा
पानी हवा के संग ।
जहाँ पक्षियों की चहचहाट
भरती कितने रंग ।।
अब भी समय है तज दो
इन शहरों के अनुबंध ।
बुला रही है सौंधी माटी
महसूस करो वो गंध।।
कवि का नम -
व्यग्र पाण्डे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
अपना संदेश यहां भेजें