समुद्र - सीताकांत महापात्र | Samudra- Sitakant Mahapatra

समुद्र का कुछ भी नहीं होता ।
मानो अपनी अबूझ भाषा में
कहता रहता है
जो भी ले जाना हो ले जाओ
जितना चाहो ले जाओ
फिर भी रहेगी बची देने की अभिलाषा ।

क्या चाहते हो ले जाना, घोंघे ?
क्या बनाओगे ले जाकर ?
कमीज के बटन ?
नाड़ा काटने के औजार ?
टेबुल पर यादगार ?
किंतु मेरी रेत पर जिस तरह दिखते हैं
उस तरह कभी नहीं दिखेंगे ।

या खेलकूद में मस्त केंकड़े ?
यदि धर भी लिया उन्हें
तो उनकी आवश्यकतानुसार
नन्हे-नन्हे सहस्र गड्ढों के लिए
भला इतनी पृथ्वी पाओगे कहाँ ?

या चाहते हो फोटो ?
वह तो चाहे जितना खींच लो
तुम्हारे टीवी के बगल में
सोता रहूँगा छोटे-से फ्रेम में बँधा
गर्जन-तर्जन, मेरा नाच गीत, उद्वेलन
कुछ भी नहीं होगा ।

जो ले जाना हो ले जाओ, जी भर
कुछ भी खत्म नहीं होगा मेरा
चिर-तृषित सूर्य लगातार
पीते जा रहे हैं मेरी हो छाती से
फिर भी तो मैं नहीं सूखा ।

और जो दे जाओगे, दे जाओ खुशी-खुशी
पर दोगे भी क्‍या
सिवा अस्थिर पदचिन्हों के
एक-दो दिनों की रिहायश के बाद
सिवा आतुर वापसी के ?

उन पदचिह्नों को
लीप-पोंछकर मिटाना ही तो है काम मेरा
तुम्हारी आतुर वापसी को
अपने स्वभाव सुलभ
अस्थिर आलोडन में
मिला लेना ही तो है काम मेरा ।

कवि का नाम - 
सीताकांत महापात्र
समुद्र कविता सीताकांत महापात्र


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