कोऊ भयो मुंडिया सन्यासी, कोज जोगी भयो,
कोऊ ब्रह्मचारी, कोऊ जतियन मानबो ।
हिंदु तुरक कोऊ राफजी इमाम साफी,
मानस को जात सबै एकै पहचानबो ।
करता करीम सोई राजक रहीम ओई,
दूसरो न भेद कोई भूल भ्रम मानबो ।
एक ही सेव सबही का गुरुदेव एक,
एक ही सरूप सबै, एकै जोत जानबो ।
जैसे एक आग ते कनूका कोट आग उठे,
न्यारे न्यारे है कै फेरि आगमै मिलाहिंगे।
जैसे एक धूरते अनेक धूर धूरत हैं ,
धूरके कनूका फेर धूरही समाहिंगे ।
जैसे एक नदते तरंग कोट उपजत हैं ,
पान के तरंग सब पानही कहाहिंगे ।
तैसे विस्वरूप ते अभूत भूत प्रगट होइ ,
ताही ते उपज सबै ताही मैं समाहिंगे ।
कवि का नाम -
गुरु गोविंद सिंह
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