'प्रभो! विपतितयों से रक्षा करो'
यह प्रार्थना लेकर मैं तेरे द्वार पर नहीं आया;
'विपतितयों से भयभीत न होऊँ'--
यही वरदान दे!
अपने दुख से व्यथित चित्त को
सांत्वना देने की भिक्षा नहीं माँगता;
'दुखों पर विजय पाऊँ'--
यही आशीर्वाद दे--यही प्रार्थना है!
तेरी सहायता तुझे न मिल सके तो भी
यह वर दे कि
'मैं दीनता स्वीकार करके अवश न बनूँ!'
संसार के अनिष्ट, अनर्थ और छल-कपट
ही मेरे भाग्य में आए हैं;
तो भी मेरा अंतर इन प्रतारणाओं के
प्रभाव से क्षीण न हुआ;
'मुझे बचा ले' यह प्रार्थना लेकर
मैं तेरे दर पर नहीं आया;
केवल संकट-सागर में तैरने रहने
की शक्ति माँगता हूँ!
'मेरा भार हलका कर दे', यह याचना पूर्ण होने की
सांत्वना नहीं चाहता;
'यह भार वहन करके चलता रहूँ'--यही प्रार्थना है!
सुख-भरे क्षणों में नतमस्तक हो तेरे दर्शन कर सकूँ।
किन्तु दुख भरी रातों में
'जब सारी दुनिया मेरा उपहास करेगी'
तब मैं शंकित न होऊँ--
यही वरदान चाहता हूँ।
कवि का नाम -
रवीन्द्रनाथ टैगोर
रविन्द्र नाथ टैगोर |
8 टिप्पणियां:
वरदान शीर्षक कविता का भावार्थ
इस कविता क सरंश
Wardan sirsak kawita ka bhawarth
Vardan kavita ka bhavarth
Is Kavita Ka Tajpur chuachut hai
Vardan Kavita ka bhavarth
Vardhan kavita ka bhavarth
Vardan kavita ka jivan darshan
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