जग में सचर-अचर जिनते हैं, सारे कर्म निरत हैं।
धुन है एक-न-एक सभी को, सबके निश्चित व्रत हैं।
जीवनभर आतप सह वसुधा पर छाया करता है।
तुच्छ पत्र को भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है।।
रवि जग में शोभा सरसाता, सोम सुधा बरसाता।
सब हैं लगे कर्म में, कोई निष्क्रिय दृष्टि न आता।
हैं उद्देश्य नितांत तुच्छ तृण के भी लघु जीवन का।
उसी पूर्ति में वह करता है अंत कर्ममय तन का।।
तुम मनुष्य हो, अमित बुद्धि-बल-बिलसित जन्म तुम्हारा।
क्या उद्देश्य रहित हो जग में, तुमने कभी विचारा?
बुरा न मानो, एक बार सोचो तुम अपने मन में।
क्या कर्तव्य समाप्त कर दिया तुमने निज जीवन में?
पीते, खाते, सोते, जगते, हँसते सुख पाते हो।
जग से दूर स्वार्थ-साधन ही तुम्हारा यश है।
सोचो तुम्हीं कौन अय-अय में तुम-सा स्वार्थ विवश है ?
पैदा कर जिस देशजाति ने तुमको पाला-पोसा।
किए हुए है वह निज-हित का तुमको बड़ा भरोसा।
उससे होना उऋण प्रथम है, सत्कर्तव्य तुम्हारा।
फिर दे सकते हो वसुधा को शेष स्वजीवन सारा।।
कवि का नाम
रामनरेश त्रिपाठी
Ramnaresh Tripathi (credit - bharatkosh) |
6 टिप्पणियां:
Satkartvaya
Tum manushya ho amit budhi bal.....nij jivan me. Is padyans ka explanation
Chhota pata bhi prithvi per chhaya karta hai sahi ya galat
तिनके का कर्तव्य क्या है ?
Right
Right
एक टिप्पणी भेजें
अपना संदेश यहां भेजें