मत रौंदों बचपन को - बाल श्रमिकों के दर्द को बयाँ करती ये कविता | Poem on the pain of child labour

मत रौंदों बचपन को
बाल श्रमिक

सहमा-सहमा-सा चेहरा है,
धुँधला-धुँधला-सा बचपन है!

वो चन्दू थक जाता होगा,
सारा दिन सर पे बोझ उठाता होगा,
मेरा जीवन कब बन पाएगा?
ऐसा ख़्वाब सजाता होगा!

बेला का बचपन जल जाता होगा,
जब कोई खिलौना छीन लिया जाता होगा,
बरतन क्यों साफ़ नहीं हैं?
कह के कोई मालिक जब चिल्लाता होगा!

रहीम फूल बेचता फिरता होगा,
कभी पेन-किताब देखता होगा सड़कों पे,
यकीनन उसका मन भी,
कुछ लिखने को कर जाता होगा!

खेल का मैदान नहीं है!
भूखे जिस्म में जान नहीं है!
करवाते हो मज़दूरी दिनभर,
ये बच्चे क्या इंसान नहीं हैं?

मैं सोचती हूँ क्या इनसान! क्या भगवान!
कोई इसके लिए परेशान नहीं है?

कोई तो सँभालो इसको,
मेरे देश की क्या ये पहचान नहीं है?
यूँ मत रौंदों बचपन इनका,
सहमा-सहमा-सा चेहरा है,
धुँधला-धुँधला-सा बचपन है!
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