पीपल कविता |
युग-युग से जग में अचल, अटल
ऊपर विस्तृत नभ नील-नील नीचे वसुधा में नदी, झील
जामुन, तमाल, इमली, करील
जल से ऊपर उठता मृणाल फुनगी पर खिलता कमल लाल
तिर-तिर करते कीड़ा मराल
ऊँचे टीले से वसुधा पर झरती है निर्झरिणी झर-झर
हो जाती बूँद-बूँद झर कर
निर्झर के पास खड़ा पीपल सुनता रहता कलकल-छलछल
पल्लव हिलते ढलढल- ढलढल
पीपल के पत्ते गोल-गोल
कुछ कहते रहते डोल-डोल
जब-जब आता पंछी तरु पर जब-जब आता पंछी उड़कर
जब-जब खाता फल चुन-चुनकर
पड़ती जब पावस की फुहार बजते जब पंछी के सितार
बहने लगती शीतल बयार
तब-तब कोमल पल्लव हिल-डुल गाते सर्सर, मर्मर मंजुल
लख-लख, सुन-सुन विह्वल बुलबुल
बुलबुल गाती रहती चह-चह सरिता गाती रहती बह-बह
पत्ते हिलते रहते रह-रह
जितने भी हैं इसमें कोटर
सब पंछी, गिलहरियों के घर
सन्ध्या को अब दिन जाता ढल सूरज चलते हैं अस्ताचल
कर में समेट किरणें उज्ज्वल
हो जाता है सुनसान लोक चल पड़ते घर को चील, कोक
अँधियाली संध्या को विलोक
भर जाता है कोटर-कोटर बस जाते हैं पत्तों के घर
घर-घर में आती नींद उतर
निद्रा ही में होता प्रभात, कट जाती है इस तरह रात
फिर वही बात रे वही बात
इस वसुधा का यह वन्य प्रान्त
है दूर, अलग, एकांत, शांत
है खड़े जहाँ पर शाल, बाँस, चैपाये चरते नरम घास
निर्झर, सरिता के आस-पास
रजनी भर रो-रोकर चकोर कर देता है रे रोज भोर
नाचा करते हैं जहाँ मोर
है वहाँ वल्लरी का बंधन बंधन क्या, वह तो आलिंगन
आलिंगन भी चिर-आलिंगन
बुझती पथिकों की जहाँ प्यास निद्रा लग जाती अनायास
है वहीं सदा इसका निवास
कवि का नाम -
गोपाल सिंह 'नेपाली'
गोपाल सिंह नेपाली |
1 टिप्पणी:
बहुत सुंदर काव्य रचना
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